पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं।
जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं।
बन्दउँ खल जस सेष सरोषा।
सहस बदन बरनइ पर दोषा।।
।श्रीरामचरितमानस।
जैसे पाला और ओले खेती को नष्ट करके स्वयं भी गल कर नष्ट हो जाते हैं वैसे ही दुष्टजन दूसरों का अहित करने के लिए अपना शरीर तक छोड़ देते हैं।मैं दुष्टों को हजार मुख वाले शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ जो पराये दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के साथ वर्णन करते हैं।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
भावार्थः---
यहाँ गो0जी सन्तों और खलों में भेद करते हुए स्पष्ट करते हैं कि दुष्टजन तो दूसरे के अहित के लिए अपने शरीर का भी त्याग कर देते हैं जैसे मारीचि और कालनेमि आदि।इसके विपरीत सन्तजन दूसरों के हित के लिए अपने शरीर का त्याग कर देते हैं जैसे कि गृध्रराज जटायु।उत्तरकाण्ड में भी गो0जी ने इस कथन की पुनरावृत्ति की है।यथा,,,
पर सम्पदा बिनासि नसाहीं।
जिमि ससि हति हिम उपल बिलाहीं।।
आपु गये अरु तिन्हहूँ घालहिं।
जे कहुँ सतमारग प्रतिपालहिं।।
शेषनागजी के हजार फन व दो हजार जिह्वायें हैं जिनसे वे नित्य निरन्तर प्रसन्नता व उत्साहपूर्वक भगवान के गुणगान करते रहते हैं।श्रीमद्भागवत के स्कन्ध 02 के अध्याय 07 में शेषजी द्वारा भगवान के गुणों का निरन्तर गान करने का वर्णन है।
इसके विपरीत दुष्टजन एक ही मुख और एक ही जिह्वा से शेषनाग जी के समान जोश और उत्साह के साथ हर्षपूर्वक पराये दोषों का नित्य निरन्तर कथन करते रहते हैं और वे इस कार्य को करने में थकते भी नहीं हैं।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।
रामचरितमानस