श्रीरामचरितमानस

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरता गरल सराहिअ मीचु।।
खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।
उभय अपार उदधि अवगाहा।।
तेहि ते कछु गुन दोष बखाने।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किये रहता है।अमरता की सराहना अमर करने में होती है और विष की सराहना मारने में होती है।
 खलों के पापों और अवगुणों की कथा और साधु के गुणों की कथा अपार और अथाह समुद्र हैं।इसी कारण मैंने उनके कुछ गुण और दोष का वर्णन किया क्योंकि बिना पहिचाने इनका संग्रह या त्याग नहीं हो सकता।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  सज्जनों अथवा भलों की प्रशंसा भलाई करने में ही होती है और नीच की बड़ाई नीचता ही में होती है।अर्थात भले को सुयश और बुरे या नीच को अपयश प्राप्त होता है।जैसे अमृत की प्रशंसा अमरत्व गुण की अथवा अमरता प्रदान करने की होती है और विष की प्रशंसा मृत्युकारक गुण की ही होगी।यदि विष से मृत्यु नहीं हुयी तो उसका अपयश होगा कि यह नकली विष था।इसी तरह सन्तजनों और खलों अथवा दुष्टजनों की भी उनके गुणों व अवगुणों के अनुसार प्रशंसा व निन्दा होती है।सन्तों के गुण और खलों के अवगुणों को कहने का तात्पर्य यह है कि लोग सन्तजनों के गुणों को ग्रहण करें और दुष्टजनों के अवगुणों से बचें।इसका एक भाव यह भी है कि जिस प्रकार वैद्य रोगी को औषधि देने के साथ पथ्य और कुपथ्य भी बता देता है।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।