Ramcharitmanas

बन्दउँ बिधि पद रेनु भवसागर जेहिं कीन्ह जँह।
सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  वन्दना क्रम को आगे बढ़ाते हुए गो0जी कहते हैं कि अब मैं श्रीब्रह्माजी के चरणरज की वन्दना करता हूँ, जिन्होंने भवसागर बनाया है और जहाँ से एक ओर सन्तरूपी अमृत,चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्यरूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुये।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  श्रीरामचरितमानस के मङ्गलाचरण में श्री ब्रह्मा जी की वन्दना नहीं की गई है किन्तु यहाँ उनके चरणरज की वन्दना गो0जी ने इस भाव से की है कि वे सृष्टिकर्त्ता हैं और सभी देवताओं के पिता व सभी प्राणियों के पितामह हैं।स्कन्द आदि पुराणों में भी श्रीब्रह्माजी की वन्दना की गई है।
  संसार को सागर कहने का तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार सागर में विभिन्न प्रकार की अच्छी व बुरी वस्तुयें पायी जाती हैं उसी प्रकार संसार में भी सन्तजन व खल अथवा दुष्टजन होते हैं।सागर मन्थन में भी जो चौदह रत्न निकले थे उनमें भी कुछ सन्तों की तरह उपकारी व कुछ असन्तों की तरह हानिकारक हैं।सागर मन्थन से निकले चौदह रत्नों के विषय में एक प्रसिद्ध दोहा है---
श्री रम्भा विष वारुणी अमिय शँख गजराज।
धन्वन्तरि धनु धेनु तरु चन्द्र और मणि बाज।।
 जिस प्रकार सागर में अगाध जल,तरंगें, जीवजन्तु व विभिन्न प्रकार की औषधियां व रत्न आदि होते हैं उसी प्रकार संसाररूपी भवसागर में मनोरथ व आशारूपी अगाध जल,तृष्णारूपी कभी नष्ट न होने वाली तरंगें,काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर आदि के रूप में विभिन्न प्रकार के जीवजन्तु आदि रहते हैं।विभिन्न प्रकार के विषयभोगों में लिप्त रहना ही भवसागर में डूबना अथवा मदिरापान करना  है।संसाररूपी समुद्र में सन्तरूपी अमृत,चन्द्रमा व कामधेनु हैं जिनके अमृतरूपी वचन ही हमें विभिन्न प्रकार के विषयभोगों रूपी विषों से बचाने का काम करते हैं।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।